प्रेम सुधा सागर पृ. 58

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
नवम अध्याय

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परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण परम स्वतंत्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र आदि के साथ यह सम्पूर्ण जगत उनके वश में है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ।[1]

ग्वालिनी यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपा प्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होने पर भी, शंकर आत्मा होने पर भी और वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होने पर भी न पा सके।[2] यह गोपिकानंदन भगवान अनन्यप्रेमी भक्तों के लिए जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरूप भूत ज्ञानियों के लिए भी नहीं हैं।[3] इसके बाद नन्दरानी यशोदा जी तो घर के काम-धंधों में उलझ गयीं और ऊखल में बंधे हुए भगवान श्यामसुन्दर ने उन दोनों अर्जुन वृक्षों को मुक्ति देने की सोची, जो पहले यक्षराज कुबेर के पुत्र थे।[4] इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव। इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य की पूर्णता थी। इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदजी ने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे।[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यद्यपि भगवान स्वयं परमेश्वर हैं, तथापि प्रेम परवश होकर बँध जाना परम चमत्कारकारी होने के कारण भगवान का भूषण ही है, दूषण नहीं। आत्माराम होने पर भी भूख लगना, पूर्णकाम होने पर भी अतृप्त रहना, शुद्ध सत्त्वस्वरूप होने पर भी क्रोध करना, स्वराज्य-लक्ष्मी से युक्त होने पर भी चोरी करना, महाकाल यम आदि को भय देने वाले होने पर भी डरना और भागना, मन से भी तीव्र गति वाले होने पर भी माता के हाथों पकड़ा जाना, आनन्दमय होने पर भी दुःखी होना, रोना, सर्वव्यापक होने पर भी बँध जाना - यह सब भगवान की स्वाभाविक भक्तावश्यता है। जो लोग भगवान को नहीं जानते हैं, उनके लिये तो इसका कुछ उपयोग नहीं है, परन्तु जो श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में पहचानते हैं, उनके लिये यह अत्यन्त चमत्कारी वस्तु है और यह देखकर - जानकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है, भक्ति प्रेम से सराबोर हो जाता है। अहो! विश्वेश्वर प्रभु अपने भक्त के हाथों ऊखल में बँधे हुए हैं।
  2. इस श्लोक में तीनों नकारों का अन्वय ‘लेभिरे’ क्रिया के साथ करना चाहिये। न पा सके, न पा सके, न पा सके।
  3. ज्ञानी पुरुष भी भक्ति करें तो उन्हें इन सगुण भगवान की प्राप्ति हो सकती है, परन्तु बड़ी कठिनाई से। ऊखल-बँधे भगवान सगुण हैं, वे निर्गुण प्रेमी को कैसे मिलेंगे?
  4. स्वयं बँधकर भी बन्धन में पड़े हुए यक्षों की मुक्ति की चिन्ता करना, सत्पुरुष के सर्वथा योग्य हैं। जब यशोदा माता की दृष्टि श्रीकृष्ण से हटकर दूसरे पर पड़ती है, तब वे भी किसी दूसरे को देखने लगते हैं और ऐसा उधम मचाते हैं कि सबकी दृष्टि उनकी ओर खिंच आये। देखिये, पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदि का प्रसंग।
  5. ये अपने भक्त कुबेर के पुत्र हैं, इसलिये इनका अर्जुन नाम है। ये देवर्षि नारद के द्वारा दृष्टिपूत किये जा चुके हैं, इसलिये भगवान ने उनकी ओर देखा। जिसे पहले भक्ति की प्राप्ति हो जाती है, उस पर कृपा करने के लिये स्वयं बँधकर भी भगवान जाते हैं।

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