प्रेम सुधा सागर पृ. 57

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
नवम अध्याय

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जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत के पहले भी थे, बाद में भी रहेंगे, इस जगत के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपों में भी हैं; और तो क्या, जगत के रूप में भी स्वयं वही हैं;[1]

यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियों से परे और अव्यक्त हैं - उन्हीं भगवान को मनुष्य का-सा रूप धारण करने के कारण पुत्र समझकर यशोदा रानी रस्सी से उखल में ठीक वैसे ही बाँध देतीं हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक[2]हो।

जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़के को रस्सी से बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी[3] जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी [4],इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लाती और जोड़तीं गयीं, त्यों-त्यों जुड़ने पर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं।[5]

यशोदा रानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलता पर देखने वाली गोपियाँ मुस्कराने लगीं और वे स्वयं भी मुस्कराती हुई आशचर्यचकित हो गयीं।[6] भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयीं हैं और वे बहुत थक भी गयीं हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बन्ध गये।[7]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस श्लोक में श्रीकृष्ण की ब्रह्म रूपता बतायी गयी है। ‘उपनिषदों में जैसे ब्रह्म का वर्णन है- अपूर्वम, अनपरम, अनन्तरम, अथाहमी इत्यादि। वही बात यहाँ श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में है। वह सर्वाधिष्ठान, सर्वसाक्षी, सर्वातीत, सर्वान्तर्यामी, सर्वोपादन एवं सर्वरूप ब्रह्म ही यशोदा माता के प्रेम के वश बँधने जा रहा है। बन्धन रूप होने के कारण उसमें किसी प्रकार असंगति या अनौचित्य भी नहीं है।
  2. यह फिर कभी ऊखल पर जाकर न बैठे इसके लिये ऊखल से बाँधना ही उचित है; क्योंकि खल का अधिक संग होने पर उससे मन में उद्वेग हो जाता है। यह ऊखल भी चोर ही है, क्योंकि इसने कन्हैया के चोरी करने में सहायता की है। दोनों को बन्धन योग्य देखकर ही यशोदा माता ने दोनों को बाँधने का उद्योग किया।
  3. यशोदा माता ज्यों-ज्यों अपने स्नेह, ममता आदि गुणों (सद्गुणों या रस्सियों) से श्रीकृष्ण का पेट भरने लगीं, त्यों-त्यों अपनी नित्यमुक्ता, स्वतन्त्रता आदि सद्गुणों से भगवान अपने स्वरूप को प्रकट करने लगे।
  4. प्रेम सुधा सागर अध्याय 9 श्लोक 16 का विस्तृत संदर्भ
  5. प्रेम सुधा सागर अध्याय 9 श्लोक 16 का विस्तृत संदर्भ/1
  6. वे मन-ही-मन सोचतीं - इसकी कमर मुट्ठी भर की है, फिर भी सैकड़ों हाथ लम्बी रस्सी से यह नहीं बँधता है। कमर तिल मात्र भी मोटी नहीं होती, रस्सी एक अंगुल भी छोटी नहीं होती, फिर भी वह बँधता नहीं। कैसा आश्चर्य है। हर बार दो अंगुल की ही कमी होती है, न तीन की, न चार की, न एक की। यह कैसा अलौकिक चमत्कार है।
  7. प्रेम सुधा सागर अध्याय 9 श्लोक 17 का विस्तृत संदर्भ

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