प्रेम सुधा सागर पृ. 5

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
प्रथम अध्याय

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वसुदेव जी ने कहा- 'राजकुमार! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं। इधर यह तो एक स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर! ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? वीरवर! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्ष के बाद- जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही। जब शरीर का अंत हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।'

जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है जैसे जोंक किसी अगले तिनके को पकड़ लेती है, तब पहले के पकड़े हुए तिनके को छोड़ती है - वैसे जीव भी अपने कर्म के अनुसार किसी शरीर को प्राप्त करने के बाद ही इस शरीर को छोड़ता है। जैसे कोई पुरुष जाग्रत-अवस्था में राजा के ऐश्वर्य को देखकर और इन्द्रादि के ऐश्वर्य को सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातों में घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्न में अपने को राजा या इन्द्र के रूप में अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्था के शरीर को भूल जाता है। कभी-कभी जाग्रत अवस्था में ही मन-ही-मन उन बातों का चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल शरीर की सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्म के वश होकर दूसरे शरीर को प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीर को भूल जाता है। जीव का मन अनेक विकारों का पुंज है। देहान्त के समय वह अनेक जन्मों के संचित और प्रारब्ध कर्मों की वासनाओं के अधीन होकर माया के द्वारा रचे हुए अनेक पांचभौतिक शरीरों में से जिस किसी शरीर के चिन्तन में तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि 'यह मैं हूँ', उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है। जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जल से भरे हुए घड़ों में या तेल आदि तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होती हैं और हवा के झोंके से उनके जल आदि में हिलने-डोलने पर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चंचल जान पड़ती हैं - वैसे ही जीव अपने स्वरूप के अज्ञान द्वारा रचे हुए शरीर में राग करके उन्हें अपना आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जाने को अपना आना-जाना मानने लगता है। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से द्रोह नहीं नहीं करना चाहिए; क्योंकि जीव कर्म के अधीन हो गया है और जो किसी से भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा। कंस! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है। यह तो आपकी कन्या के सामान है। इस पर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाह के मंगलचिह्न भी इसके शरीर से नहीं उतरे हैं। ऐसी दशा में आप-जैसे दीनवत्सल पुरुष को इस बेचारी का वध करना उचित नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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