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राजर्षे! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिए बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे।[26]
ये ब्रजवासियों के कन्हैया स्वयं भगवान हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वालबालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिए ब्रज में निकल पड़ते और ब्रज की भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते। उनके बचपन की चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियों को तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं। एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्दबाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैया के करतूत कहने लगीं।
‘अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहने का समय न होने पर भी यह बछड़ों को खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है। यह चोरी के बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है। केवल अपनी ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरों को बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जाने पर नहीं खा पाते, तब यह हमारे मटकों को ही फोड़ डालता है। यदि घर में कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालों पर बहुत खीझता है और हमारे बच्चों को रुलाकर भाग जाता है। जब हम दही-दूध को छीकों पर रख देतीं हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है। कहीं दो-चार पीढ़ो को एक के ऊपर एक रख देता है। कहीं उखल पर चढ़ जाता है तो कहीं उखल पर पीढ़ा रख देता है,[1] जब इतने पर काम नहीं चलता, तब यह नीचे से ही उन बर्तनों में छेद कर देता है। इसे इस बात की पक्की पहचान रहती है कि किस छीके पर किस बर्तन में क्या रखा है। और ऐसे ढंग से छेड़ करना जानता है कि किसी को पता तक न चले। जब हम अपनी वस्तुओं को बहुत अँधेरे में छिपा देतीं हैं, तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाश से अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है। इसके शरीर में भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है। यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घर के काम-धंधों में उलझी रहतीं हैं, तब यह अपना काम बना लेता है।
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