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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छाछठवाँ अध्याय
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मन्दमति पौण्ड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद जोर-जोर से हँसने लगे। उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने दूत से कहा- ‘तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर- औंधें मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायेगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथ खा जायँगे’। परीक्षित! भगवान का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रक का दूत अपने स्वामी के पास आया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करुष का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराज के पास रहता था)। भगवान श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया। काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित! अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को देखा। पौण्ड्रक ने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शारंग धनुष और श्रीवत्सं चिह्न आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थल पर बनावटी कौस्तुभ मणि और वनमाला लटक रही थी। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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