प्रेम सुधा सागर पृ. 44

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
आठवाँ अध्याय

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नामकरण- संस्कार और बाललीला

श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! यदुवंशियों के कुल पुरोहित थे श्री गर्गाचार्य जी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये। उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान ही हैं’- इस भाव से उनकी पूजा की। जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य- सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी से उनका अभिनन्दन किया और कहा- ‘भगवन! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप-जैसे महात्माओं का हमारे-जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण है। हम तो घरों में इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचों में हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते। हमारे कल्याण के सिवा आपके आगमन का और कोई हेतु नहीं है। प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित हैं, वह भी ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है। आपने उसी ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है। आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों का नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्य-मात्र का गुरु है।

गर्गाचार्यजी ने कहा- नन्द जी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेव जी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेव जी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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