प्रेम सुधा सागर पृ. 42

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सातवाँ अध्याय

Prev.png

इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शान्त हो गया। वह अधिक चल न सका। तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशु को अपने से अलग नहीं कर सका। भगवान ने इतने ज़ोर से उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया। उसकी आँखें बाहर निकल आयीं, बोलती बंद हो गयी तथा प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह ब्रज में गिर पड़ा[1]। वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाश से एक चट्टान पर गिर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया - ठीक वैसे ही, जैसे भगवान शंकर के बाणों से आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था।

भगवान श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं। उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया। बालक मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आया। यद्यपि उसे राक्षस आकाश में उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया। इस प्रकार बालक श्रीकृष्ण को फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपों को अत्यन्त आनन्द हुआ। वे कहने लगे- ‘अहो! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। देखो तो सही, यह कितनी अद्भुत घटना घट गयी! यह बालक राक्षस के द्वारा मृत्यु के मुख में डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्ट को उसके पाप ही खा गये! सच है, साधु पुरुष अपनी समता से ही सम्पूर्ण भयों से बच जाता है। हमने ऐसा कौन-सा, तप, भगवान की पूजा, प्याऊ-पौसला, कुआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवों की भलाई की थी, जिसके फल से हमारा यह बालक मर कर भी अपने स्वजनों को सुखी करने के लिए लौट आया? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की बात है।' जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेव जी की बात का बार-बार समर्थन किया।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाण्डु देश में सहस्राक्ष नाम के एक राजा थे। वे नर्मदा-तट पर अपनी रानियों के साथ विहार कर रहे थे। उधर से दुर्वासा ऋषि निकले, परन्तु उन्होंने प्रणाम नहीं किया। ऋषि ने शाप दिया- ‘तू राक्षस हो जा।’ जब वह उनके चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासाजी ने कह दिया - ‘भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह का स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा।’ वही राजा तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्ण का संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया।

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः