प्रेम सुधा सागर पृ. 414

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
साठवाँ अध्याय

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तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाई को युद्ध में जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में चौसर खेलते समय बलरामजी ने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जाने की आशंका से तुमने चुपचाप वह सारा दुःख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुण से मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ। तुमने मेरी प्राप्ति के लिये दूत के द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परन्तु जब तुमने मेरे पहुँचने में कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय तुमने अपना यह सर्वांगसुन्दर शरीर किसी दूसरे के योग्य न समझकर इसे छोड़ने का संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेम-भाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भाव का केवल अभिनन्दन करते हैं ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित्! जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्यों की-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेम को बढ़ाने वाले विनोद भरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजी के साथ विहार करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण समस्त जगत् को शिक्षा देने वाले और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियों के महलों में भी गृहस्थों के समान रहते और गृहस्थोचित धर्म का पालन करते थे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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