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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
साठवाँ अध्याय
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—साध्वी! राजकुमारी! यही बातें सुनने के लिये मैंने तुमसे हँसी-हँसी में तुम्हारी वंचना की थी, तम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनों की जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरशः सत्य है। सुन्दरी! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की हुई मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओं के समान बन्धन में डालने वाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओं से मुक्त कर देती हैं। पुण्यमयी प्रिये! मैंने तुमहरा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परन्तु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई। प्रिये! मैं मोक्ष का स्वामी हूँ। लोगों को संसार-सागर से पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकार के व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवन के विषय-सुख की अभिलाषा से मेरा भजन करते हैं, वे मेरी माया से मोहित हैं। मानिनी प्रिये! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं का आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुख के साधन सम्पत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरक में और नरक के ही समान सूकर-कूकर आदि योनियों में भी प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु उन लोगों का मन तो विषयों में ही लगा रहता है, इसलिये उन्हें नरक में जाना भी अच्छा जान पड़ता है। गृहेश्वरी प्राणप्रिये! यह बड़े आनन्द की बात हैं कि तुमने अब तक निरन्तर संसार-बन्धन से मुक्त करने वाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियों का चित्त दूषित कामनाओं से भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में ही लगी रहने के कारण अनेकों प्रकार के छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है। मानिनि! मुझे अपने घर भर में तुम्हारे समान प्रेम करने वाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाह में आये हुए राजाओं की उपेक्षा करके ब्राह्मण के द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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