प्रेम सुधा सागर पृ. 411

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
साठवाँ अध्याय

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सर्वेश्वर आर्यपुत्र! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं मालूम होती कि आप राजाओं से भयभीत होकर समुद्र में आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने सार्ग्न्धनुष के टंकार से मेरे विवाह के समय आये हुए समस्त राजाओं को भगाकर अपने चरणों में समर्पित मुझ दासी को उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपने कर्कश ध्वनि से वन-पशुओं को भगाकर अपना भाग ले आवे।

कमलनयन! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्रायः कष्ट ही उठाया पड़ता है। प्राचीन काल के अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राजराजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोड़कर आपको पाने की अभिलाषा से तपस्या करने वन में चले गये थे, वे आपके मार्ग का अनुसरण करने के कारण क्या किसी प्रकार का कष्ट उठा रहे हैं। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमार का वरण कर लो। भगवन्! आप समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलों की सुगन्ध का बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेने मात्र से लोग संसार के पाप-ताप से मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हीं में निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थ को भलीभाँति समझने वाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलों की सुगन्ध सूँघने को मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगों को वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयों से युक्त हैं! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती। प्रभो! आप सारे जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोक में समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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