प्रेम सुधा सागर पृ. 409

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
साठवाँ अध्याय

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श्रीशुकदेव जी कहते हैं—राजन्! यह भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्राणप्रिया को इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतम ने केवल परिहास में ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे। परीक्षित्! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निखरती निरखती हुई उनसे कहने लगीं—

रुक्मिणीजी ने कहा—कमलनयन! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणों से युक्त, अनन्त भगवान के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमा से स्थित, तीनों गुणों के स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणों के अनुसार स्वभाव रखने वाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओं के पीछे भटकने वाले अज्ञानी लोग ही करते हैं। भला मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन्! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओं के भय से समुद्र में आ छिपे हैं। परन्तु राजा शब्द का अर्थ पृथ्वी के राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हीं के भय से अन्तःकरणरूप समुद्र में चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओं से वैर रखते हैं, परन्तु वे राजा कौन हैं ? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो! आप राजसिंहासन से रहित हैं, यह भी ठीक ही है; क्योंकि आपके चरणों की सेवा करने वालों ने भी राजा के पद को घोर अज्ञानअन्धकार समझकर दूर से ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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