प्रेम सुधा सागर पृ. 4

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
प्रथम अध्याय

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श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझा कर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए। प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे सूरसेन। वे मथुरापुरी में रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे। उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा यहाँ विराजमान रहते हैं। एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेव जी विवाह करके अपनी नव-विवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिए उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोने के बने हुए रथ चल रहे थे।

देवकी के पिता थे देवक। अपनी पुत्री पर उनका बड़ा प्रेम था। कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हज़ार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर दासियाँ दहेज में दीं। विदाई के समय वर-वधू के मंगल के लिए एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके कहा - ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी।' कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टता की सीमा नही थी। वह भोजवंश का कलंक ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिए तैयार हो गया। वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शांत करते हुए बोले -

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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