प्रेम सुधा सागर पृ. 395

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
अट्ठावनवाँ अध्याय

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परीक्षित्! कोसलदेश के राजा थे नग्नजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परम सुन्दरी कन्या का नाम था सत्या; नग्नजित् की पुत्री होने से वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित्! राजा की प्रजा के अनुसार सात दुर्दान्त बैलों पर विजय प्राप्त न कर सकने के कारण कोई राजा उस कन्या से विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुष की गन्ध भी नहीं सह सकते थे। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलों को जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे। कोसलनरेश महाराज नग्नजनित् ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्री से उनका सत्कार किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया। राजा नग्नजनित् की कन्या सत्या ने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदि का पालन करके इन्हीं का चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसा को पूर्ण करें’। नाग्नजिती सत्या मन-ही-मन सोचने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकज का पराग अपने सिर पर धारण करते हैं और जिन प्रभु ने अपनी बनायी हुई मर्यादा का पालन करने के लिये ही समय-समय पर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियम से प्रसन्न होंगे ? वे तो केवल अपनी कृपा से ही प्रसन्न हो सकते हैं’। परीक्षित्! राजा नग्नजित् ने भगवान श्रीकृष्ण की विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत् के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्द ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’ ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजा नग्नजित् का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—राजन्! जो क्षत्रिय अपने धर्म में स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानों ने उसके इस कर्म की निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्द का—प्रेम का सबन्ध स्थापित करने के लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदले में कुछ शुल्क देने की प्रथा नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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