प्रेम सुधा सागर पृ. 393

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
अट्ठावनवाँ अध्याय

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परीक्षित्! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाण वाले दो तरकस लिये तथा भगवान श्रीकृष्ण के साथ कवच पहनकर अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर वानर-चिह्न से चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरों का नाश करने वाले अर्जुन उस गहन वन में शिकार खेलने गये, जो बहुत-से सिंह, बाघ आदि भयंकर जानवरों से भरा हुआ था। वहाँ उन्होंने बहुत-से बाघ, सूअर, भैसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंग का एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन,, खरगोश और शल्लकी (साही) आदि पशुओं पर अपने बाणों का निशाना लगाया। उनमें से जो यज्ञ के योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्व का समय जानकार राजा युधिष्ठिर के पास ले गये। अर्जुन शिकार खलेते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगने पर यमुनाजी के किनारे गये। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियों ने यमुनाजी में हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परम सुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है। उस श्रेष्ठ सुन्दरी की जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के भेजने पर अर्जुन ने उसके पास जाकर पूछा— ‘सुन्दरी! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? कहाँ से आयी हो ? और क्या करना चाहती हो ? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि! तुम अपनी सारी बात बतलाओ’ ।

कालिन्दी ने कहा- ‘मैं भगवान सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान विष्णु को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ। वीर अर्जुन! मैं लक्ष्मी के परम आश्रय भगवान को छोड़कर और किसी को अपना पति नहीं बना सकती। अनाथों के एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुना जल में मेरे पिता सूर्य ने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसी में मैं रहती हूँ। जब तक भगवान का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी’। अर्जुन ने जाकर भगवान श्रीकृष्ण से सारी बातें कहीं। वे तो पहले से ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिदी को अपने रथ पर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिर के पास ले आये ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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