प्रेम सुधा सागर पृ. 387

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
सत्तावनवाँ अध्याय

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स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से द्वारका बुलाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करने के लिये वे बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समदेव—सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे—‘हाय! हाय! यह तो बड़े ही दुःख की बात हुई’।

भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा—‘तुम सत्राजित् से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?’ शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभ वश सोये हुए सत्राजित् को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने-चिल्लाने लगीं; परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया।

सत्यभामाजी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी! हाय पिताजी! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच-बीच में वे बेहोश हो जातीं और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर को गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की ह्त्या का वृत्तांत सुनाया—यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे। परीक्षित्! सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने सब सुनकर मनुष्यों की-सी लीला करते हुए अपने आँखों में आँसूं भर लिये और विलाप करने करने लगे कि ‘अहो! हम लोगों पर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी!’। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा को मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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