प्रेम सुधा सागर पृ. 386

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
छप्पवनवाँ अध्याय

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तदनन्तर भगवान ने सत्राजित् को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित् को सौंप दी। सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।

उसके मन में आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान् के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों। मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा।

अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’। सत्राजित् ने अपनी विवेक-बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणों से सम्पन्न थीं। बहुत०से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित् से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्यभगवान के भक्त हैं, इसीलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उनके फल के, अर्थात् उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’ ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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