प्रेम सुधा सागर पृ. 383

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
छप्पवनवाँ अध्याय

Prev.png

श्रीशुकदेव जी कहते हैं— परीक्षित! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित् है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तमणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया। परीक्षित! वह मणि प्रतिदिन आठ भार[1] सोना दिया करती थी। और वहाँ वह पूजित होकर रहती थी वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा—‘सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।

एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला | उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिये दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भार का परिमाण इस प्रकार है—अर्थात् ‘चार व्रीहि (धान) की एक गुंजा, पाँच गुंजा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरण का एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पल की एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।’

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः