प्रेम सुधा सागर पृ. 375

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
चौवनवाँ अध्याय

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फिर भी रुक्मी उनके अनिष्ट की चेष्टा से विमुख न हुआ। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगह से मूँड़कर उसे कुरूप बना दिया। तब तक यदुवंशी वीरों ने शत्रु की अद्भुत सेना को तहस-नहस कर डाला—ठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवन को रौंद डालता है। फिर वे लोग उधर से लौटकर श्रीकृष्ण के पास आये तो देखा कि रुक्मी दुपट्टे से बँधा हुआ अधमरी अवस्था में पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान बलरामजी को बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण से कहा— ‘कृष्ण! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हम लोगों के योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धी की दाढ़ी-मूँछ मूँड़कर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकार का वध ही है’। इसके बाद बलरामजी ने रुक्मिणी को सम्बोधन करके कहा—‘साध्वी! तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हम लोगों को बुरा न मानना; क्योंकि जीव को सुख-दुःख देने वाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्म का फल भोगना पड़ता है’। अब श्रीकृष्ण-कृष्ण से बोले—‘कृष्ण! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करने योग्य अपराध करे तो भी अपने सम्बन्धियों के द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराध से ही मर चुका है, मरे हुए को फिर क्या मारना ?’। फिर रुक्मिणीजी से बोले—‘साध्वी! ब्रह्माजी ने क्षत्रियों का धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाई को मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है’। इसके बाद श्रीकृष्ण से बोले—‘भाई कृष्ण! यह ठीक है कि जो लोग धन के नशे में अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारण से अपने बन्धुओं का ही तिरस्कार कर दिया करते हैं’।


अब वे रुक्मिणी से बोले—‘साध्वी! तुम्हारे भाई-बन्धु समस्त प्राणियों के प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मंगल के लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियों की भाँति अमंगल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धि की विषमता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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