प्रेम सुधा सागर पृ. 374

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
चौवनवाँ अध्याय

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देख! जब तक मेरे बाण तुझे धरती पर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्ची को छोड़कर भाग जा।’ रुक्मी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उस पर छः बाण छोड़े। साथ ही भगवान श्रीकृष्ण ने आठ बाण उसके चार घोंड़ो पर और दो सारथि पर छोड़े और तीन बाणों से उसके रथ की ध्वजा को काट डाला। तब रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और भगवान श्रीकृष्ण को पाँच बाण मारे। उन बाणों के लगने पर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मी ने इसके बाद एक और धनुष लिया, परन्तु हाथ में लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युत ने उसे भी काट डाला। इस प्रकार रुक्मी ने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमर—जितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभी को भगवान ने प्रहार करने के पहले ही काट डाला। अब रुक्मी क्रोधवश हाथ में तलवार लेकर भगवान श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से रथ से कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतिंगा आग की ओर लपकता है। जब भगवान ने देखा कि रुक्मी मुझ पर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणों से उसकी ढाल-तलवार को तिल-तिलकर करके काट दिया और उसको मार डालने के लिये हाथ में तीखी तलवार निकाल ली ।

कब रुक्मिणीजी ने देखा कि ये तो हमारे भाई को अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भय विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर गिरपर करुण-स्वर में बोलीं— ‘देवताओं के भी आराध्यदेव! जगत्पते! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओं को कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं, परन्तु कल्याण स्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैया तो मारना आपके योग्य काम नहीं है’। श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रुक्मिणीजी का एक-एक अंग भय के मारे थर-थर काँप रहा था। शोक की प्रबलता से मुँह सूख गया था, गला रूँध गया था। आतुरतावश सोने का हार गले से गिर पड़ा था और इसी अवस्था में वे भगवान के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परम दयालु भगवान उन्हें भयभीत देखकर करुणा से द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मी को मार डालने का विचार छोड़ दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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