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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरपनवाँ अध्याय
बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ों से सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकार के उपहार तथा पूजन आदि की सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वारांगनाएँ भी साथ थीं। गवैये गाते जाते थे, बाजे वाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिन के चारों ओर जय-जयकार करते—विरद बखानते जा रहे थे। देवीजी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणीजी ने अपने कमल के सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतर से पवित्र एवं शान्तभाव से युक्त होकर अम्बिकादेवी के मन्दिर में प्रवेश किया। बहुत-सी विधि-विधान जानने वाली बड़ी-बूढ़ी ब्रह्माणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी भवानी को और भगवान शंकरजी को भी रुक्मिणीजी से प्रणाम करवाया। रुक्मिणीजी ने भगवती से प्रार्थना की—‘अम्बिकामाता! आपकी गोद में बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजी को तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’। इसके बाद रुक्मिणीजी ने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकार के नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियों से अम्बिकादेवी की पूजा की। तदनन्तर उक्त सामग्रियों से तथा नमक, पुआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईख से सुहागिनी ब्रह्माणियों की भी पूजा की । तब ब्राह्मणियों ने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिन ने ब्राह्मणियों और माता अम्बिका को नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया। पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जाने पर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से जगमगाते हुए कर कमल के द्वारा एक सहेली का हाथ पकड़ कर वे गिरिजामन्दिर से बाहर निकलीं । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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