प्रेम सुधा सागर पृ. 368

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरपनवाँ अध्याय

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परीक्षित्! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुन एन पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हीं को सोंचते-सोंचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसू भरे नेत्र बन्द कर लिये। परीक्षित्! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतम के आगमन का प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे। इतने में ही भगवान श्रीकृष्ण के भेजे हुए वे ब्राह्मण-देवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुर में राजकुमारी रुक्मिणी को इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो। सती रुक्मिणीजी ने देखा ब्राह्मण-देवता का मख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरे पर किसी प्रकार की घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणों से ही समझ गयीं कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये! फिर प्रसन्नता से खिलकर उन्होंने ब्राह्मणों देवता ने निवेदन किया कि ‘भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारीजी! आपको ले जाने की उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है’। भगवान ने शुभागमन का समाचार सुनकर रुक्मिणीजी का हृदय आनन्दातिरेक से भर गया। उन्होंने इसके बदले में ब्राह्मण के लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत् कि समग्र लक्ष्मी ब्राह्मण देवता को सौंप दी ।

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्या का विवाह देखने के लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजा की सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की। और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान थे। भगवान के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान को सेना और साथियों के सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया। विदर्भराज भीष्मकजी के यहाँ निमन्त्रण में जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धन के अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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