प्रेम सुधा सागर पृ. 365

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
तिरपनवाँ अध्याय

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कुण्ड़िन नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिये विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे। नगर के राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उन पर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे। वहाँ के स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रों से सजे हुए थे। वहाँ के सुन्दर-सुन्दर घरों में से अगर के घूप की सुगन्ध फ़ैल रही थी। परीक्षित्! राजा भीष्मक ने पितर और देवताओं का विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी। सुशोभित दाँतों वाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणी को स्नान कराया गया, उनके हाथों में मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणों से विभूषित की गयीं। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों से उनकी रक्षा की और अथर्ववेद के विद्वान् पुरोहित ने गृह-शान्ति के लिये हवन किया। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियों के बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राह्मणों को दीं।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोने की मालाओं से सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्निपुर जा पहुँचे। विदर्भराज भीष्मक ने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथा के अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगों को पहले से ही निश्चित किये हुए जनवासों में आनन्दपूर्वक ठहरा दिया। उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपाल के सहस्रों मित्र नरपति आये थे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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