प्रेम सुधा सागर पृ. 361

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
बावनवाँ अध्याय

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परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण भी स्वयंवर में आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियों को बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुड़ ने सुधा का हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेश की राजकुमारी रुक्मिणी को हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मणिजी राजा भीष्मक की कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मीजी का अवतार थीं।

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! हमने सुना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्मक नन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणी देवी को बलपूर्वक हरण करके राक्षसविधि से उनके साथ विवाह किया था। महाराज! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियों को जीतकर किस प्रकार रुक्मिणी का हरण किया ? ब्रह्मर्षे! भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में क्या कहना है ? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत् का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देने वाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाय।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महाराज भीष्मक विदर्भदेश के अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी। सबसे बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी और चार छोटे थे—जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थीं सती रुक्मिणी। जब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी—जो उसके महल में आने वाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे—तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य, शीलस्वभाव और गुणों में भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणीजी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान ने रुक्मिणीजी से विवाह करने का निश्चय किया। रुक्मिणीजी के भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो। परन्तु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करने से रोक दिया और शिशुपाल को ही अपनी बहिन के योग्य वर समझा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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