प्रेम सुधा सागर पृ. 352

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
पचासवाँ अध्याय

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बलराम जी से इस प्रकार सलाह करके भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र के भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगर की लम्बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोस की थी। उस नगर की एक-एक वस्तु में विश्वकर्मा का विज्ञान (वास्तु-विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़ी-बड़ी सड़कों, चौराहों और गलियों का यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था।

वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनों से युक्त था, जिनमें देवताओं के वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोने के इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाश से बातें करते थे। स्फटिकमणि की अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाज़े बड़े ही सुन्दर लगते थे। अन्न रखने के लिये चाँदी और पीतल के बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँ के महल सोने के बने बने हुए थे और उन पर कामदार सोने के कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नों के थे तथा गच पन्ने की बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी।

इसके अतिरिक्त उस नगर में वास्तुदेवता के मंदिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्ण के लोग निवास करते थे और सबके बीच में यदुवंशियों के प्रधान उग्रसेन जी, वसुदेव जी, बलराम जी तथा भगवान श्रीकृष्ण के महल जगमगा रहे थे।

परीक्षित! उस समय देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण के लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभा को भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्य को भूख-प्यास आदि मर्त्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे। वरुण जी ने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्यामवर्ण का था और जिनकी चाल मन के समान तेज थी। धनपति कुबेर जी ने अपनी आठों निधियां भेज दीं और दूसरे लोकपालों ने अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान के पास भेज दीं।

परीक्षित! सभी लोकपालों को भगवान श्रीकृष्ण ही उनके अधिकार के निर्वाह के लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान के चरणों में समर्पित कर दीं। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियों को अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के द्वारा द्वारका में पहुँचा दिया। शेष प्रजा की रक्षा के लिये बलराम जी को मथुरापुरी में रख दिया और उनसे सलाह लेकर गले में कमलों की माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगर के बड़े दरवाजे से बाहर निकल आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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