प्रेम सुधा सागर पृ. 351

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
पचासवाँ अध्याय

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परीक्षित! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों से युद्ध किया। किन्तु यादवों ने भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति से हर बार उनकी सेना सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियों के उपेक्षापूर्वक छोड़ देने पर जरासन्ध अपनी राजधानी में लौट जाता।

जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिड़ने ही वाला था, उसी समय नारद जी का भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा। युद्ध में कालयवन के सामने खड़ा होने वाला वीर संसार में दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छों की सेना लेकर उसने मथुरा को घेर लिया।

कालयवन की यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम जी के साथ मिलकर विचार किया - ‘अहो! इस समय तो यदुवंशियों पर जरासन्ध और कालयवन - ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं। आज इस परम बलशाली यवन ने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसों में आ ही जायेगा। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लड़ने में लग गये और उसी समय जरासन्ध भी आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओं को मार डालेगा या तो क़ैद करके अपने नगर में ले जायगा; क्योंकि वह बहुत बलवान है। इसलिये आज हम लोग एक ऐसा दुर्ग - ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्य का प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियों को उसी किले में पहुँचाकर फिर इस यवन का वध करायेंगे।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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