प्रेम सुधा सागर पृ. 349

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)
पचासवाँ अध्याय

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उस युद्ध में अपार तेजस्वी भगवान बलराम जी ने अपने मूसल की चोट से बहुत-से मतवाले शत्रुओं को मार-मारकर उनके अंग-प्रत्यंग से निकले हुए खून की सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उस नदियों में मनुष्यों की भुजाएँ साँप के समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओं की भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघे मछलियों की तरह, मनुष्यों के केश सेवार के समान, धनुष तरंगों की भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकों के समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़ती, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थर के रोड़ों तथा कंकडों के समान बहे जा रहे थे। उन नदियों को देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरों का आपस में खूब उत्साह बढ़ रहा था।

परीक्षित! जरासन्ध की वह सेना समुद्र के समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाई से जीतने योग्य थी। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने थोड़े ही समय में उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेना का नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है। परीक्षित! भगवान के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेल में ही तीनों लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओं की सेना का इस प्रकार बात-की-बात में सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्य-सा वेष धारण करके मनुष्य-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है।

इस प्रकार जरासन्ध की सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीर में केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान श्रीबलराम जी ने जैसे एक सिंह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्ध को पकड़ लिया। जरासन्ध ने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियों का वध किया था, परन्तु आज उसे बलराम जी वरुण की फाँसी और मनुष्यों के फंदे से बाँध रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वी का भार उतार सकेंगे, बलराम जी को रोक दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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