प्रेम सुधा सागर पृ. 340

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
अड़तालीसवाँ अध्याय

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श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! इस प्रकार भक्त अक्रूर जी ने भगवान श्रीकृष्ण की पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर अपनी मधुर वाणी से मानो मोहित करते हुए कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘तात! आप हमारे - गुरु हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं।

अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूज्यनीय और महाभाग्यवान संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतों में नहीं। केवल जल के तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदि की बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं। चाचा जी! उनकी तो बहुत दिनों तक श्रद्धा से सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परन्तु संत पुरुष तो अपने दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं।

चाचा जी! आप हमारे हितैषी सुहृदों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवों का हित करने के लिये तथा उनका कुशल-मंगल जानने के लिये हस्तिनापुर जाइये। हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर पर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुःख में पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं।

आप जानते हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की कमी है। उसका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने कर कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्र-जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उसका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले।' सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण अक्रूर जी को इस प्रकार आदेश देकर बलराम जी और उद्धव जी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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