प्रेम सुधा सागर पृ. 337

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
अड़तालीसवाँ अध्याय

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परीक्षित! कुब्जा ने इस जन्म में केवल भगवान को अंगराग अर्पित किया था, उसी एक शुभकर्म के फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला। कुब्जा भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को अपने काम-सन्तप्त हृदय, वक्षःस्थल और नेत्रों पर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदय की सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्षःस्थल से सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दर का अपनी दोनों भुजाओं से गाढ़ आलिंगन करके कुब्जा ने दीर्घकाल से बढे हुए विरहताप को शान्त किया।

परीक्षित! कुब्जा ने केवल अंगराग समर्पित किया था। उतने से ही उसे उन सर्वशक्तिमान भगवान की प्राप्ति हुई, जो कैवल्य मोक्ष के अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परन्तु उस दुर्भाग ने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियों की भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा - ‘प्रियतम! आप कुछ दिन यहीं रुककर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता।'

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सबका मान रखने वाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धव जी के साथ अपने सर्वसम्मानित घर पर लौट आये। परीक्षित! भगवान ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरों के ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीव के लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि हैं; क्योंकि वास्तव में विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ - नहीं के बराबर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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