प्रेम सुधा सागर पृ. 334

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय

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कमल की-सी सुगन्ध और कान्ति से युक्त देवांगनाओं को भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करें? मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि - जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ! अहा! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझ इन व्रजांगनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होंने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है - औरों की तो बात की क्या- भगवद्वाणी, उनकी निःश्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अब तक भगवान के परम प्रेममय स्वरूप को ढूँढती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं।

स्वयं भगवती लक्ष्मी जी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शंकर आदि परमसमर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय में जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्दों को रास-लीला के समय गोपियों ने अपने वक्षःस्थल पर रखा और उनका आलिंगन करके अपने हृदय की जलन, विरह-व्यथा शान्त की।

नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ - उसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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