प्रेम सुधा सागर पृ. 330

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सैंतालीसवाँ अध्याय

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गोपियों ने कहा - उद्धव जी! यह बड़े सौभाग्य की और आनन्द की बात है कि यदुवंशियों को सताने वाला पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि श्रीकृष्ण के बन्धु-बान्धव और गुरुजनों के सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं। किन्तु उद्धव जी! एक बात आप हमें बतलाइये। ‘जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुस्कान और उन्मुक्त चितवन से उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुरा की स्त्रियों से भी प्रेम करते हैं या नहीं?’

तब तक दूसरी गोपी बोल उठी - ‘अरी सखी! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेम की मोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगर की स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भाव से उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न रीझेंगे?’ दूसरी गोपियाँ बोलीं - ‘साधो! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियों की मण्डली में कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वछन्द रूप से, बिना किसी संकोच के जब प्रेम की बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनों-की भी याद करते हैं?’

कुछ गोपियों ने कहा - ‘उद्धव जी! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्द के पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था! उन रात्रियों में ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हम लोगों के साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रासलीला! उस समय हम लोगों के पैरों के नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हीं की सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकार के विहार कर रहे थे।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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