प्रेम सुधा सागर पृ. 33

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छठा अध्याय

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पूतना-उद्धार

श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेव जी का कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मन में उत्पात होने की आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान की शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया। पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसका एक ही काम था - बच्चों को मारना। कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चों को मारने के लिए घूमा करती थी। जहाँ के लोग अपने प्रतिदिन के कामों में राक्षसों के भय को दूर भगाने वाले भक्तवत्सल भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते, वहीं ऐसी राक्षसियों का बल चलता है।

वह पूतना आकाशमार्ग से चल सकती थी और अपनी इच्छा के अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबा के गोकुल के पास आकर उसने माया से अपने को एक सुन्दर युवती बना लिया और गोकुल के भीतर घुस गयी। उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियों में बेले के फूल गुँथे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमक से मुख की ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी। वह अपनी मधुर मुस्कान और कटाक्षपूर्ण चितवन से ब्रजवासियों का चित्त चुरा रही थी। उस रूपवती रमणी को हाथ में कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मी जी अपने पति का दर्शन करने के लिए आ रही हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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