प्रेम सुधा सागर पृ. 313

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छियालीसवाँ अध्याय

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चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलों से लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलों के वन से शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वन में विहार का रहे थे।

जब भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे अनुचर उद्धव जी व्रज में आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धव जी को गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आ गये हों। समय पर उत्तम अन्न का भोजन कराया और जब वे आराम से पलँग पर बैठ गये, सेवकों ने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी। तब नन्दबाबा ने पूछा - ‘परम भाग्यवान उद्धव जी! अब हमारे सखा वसुदेव जी जेल से छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशल से तो हैं न? यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अपने पापों के फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। क्योंकि स्वभाव से ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियों से वह सदा द्वेष करता था।

अच्छा उद्धव जी! श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की भी याद करते हैं? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हीं को अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाला यह व्रज है; उन्हीं की गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं? आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुहृद-बान्धवों को देखने के लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवन से युक्त मुखकमल देख तो लेते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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