प्रेम सुधा सागर पृ. 31

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
पाँचवाँ अध्याय

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भगवान श्रीकृष्ण समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं। उनके ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य - सभी अनन्त हैं। वे जब नन्दबाबा के ब्रज में प्रकट हुए, उस समय उनके जन्म का महान उत्सव मनाया गया। उनमें बड़े-बड़े विचित्र और मंगलमय बाजे बजाये जाने लगे। आनन्द से मतवाले होकर गोपगण एक-दूसरे पर दही, दूध, घी और पानी उड़ेलने लगे। एक-दूसरे के मुँह पर मक्खन मलने लगे और मक्खन फेंक-फेंककर आनन्दोत्सव मनाने लगे। नन्दबाबा स्वाभाव से ही परम उदार और मनस्वी थे। उन्होंने गोपों को बहुत-से वस्त्र, आभूषण और गायें दीं। सूत-मागध-वंदीजन नृत्य, वाद्य आदि विद्याओं से अपना जीवन-निर्वाह करने वालों तथा दूसरे गुणीजनों को भी नन्दबाबा ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँह माँगी वस्तुऐं देकर उनका यथोचित सत्कार किया। यह सब करने में उनका उद्देश्य यही था कि इन कर्मों से भगवान विष्णु प्रसन्न हों और मेरे इस नवजात शिशु का मंगल हो। नन्दबाबा के अभिनन्दन करने पर परम सौभाग्यवती रोहिणी जी दिव्य वस्त्र, माला और गले के भाँति-भाँति के गहनों से सुसज्जित होकर गृहस्वामिनियों की भाँति आने-जाने वाली स्त्रियों का सत्कार करती हुईं विचर रहीं थीं। परीक्षित! उसी दिन से नन्दबाबा के ब्रज में सब प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ अठखेलियाँ करने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वाभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीड़ास्थल बन गया ।

परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप दिया और वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये। जब वसुदेवजी को यह मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये। वसुदेवजी को देखते ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लिया। नन्दबाबा उस समय प्रेम से विह्वल हो रहे थे। परीक्षित! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत-सत्कार किया। वे आदरपूर्वक आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था। वे नन्दबाबा से कुशलमंगल पूछकर कहने लगे

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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