प्रेम सुधा सागर पृ. 305

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
पैंतालीसवाँ अध्याय

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श्रीकृष्ण-बलराम का यज्ञोपवीत और गुरुकुल प्रवेश

श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परन्तु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेह का सुख नहीं पा सकते) ऐसा सोचकर उन्होंने उन पर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनों को मुग्ध रखकर उनकी लीला में सहायक होती है।

यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम जी के साथ अपने माँ-बाप के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दों से उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे - ‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौंगण्ड और किशोर-अवस्था का सुख हमसे नहीं पा सके। दुर्दैववश हम लोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य ही नहीं मिला। इसी से बालकों को माता-पिता के घर में रहकर जो लाड़-प्यार का सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका।

पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष की प्राप्ति का साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता की सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता। जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप की शरीर और धन से सेवा नहीं करता, उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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