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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौवालीसवाँ अध्याय
भगवान श्रीकृष्ण और उनसे भिड़ने वाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकार के दाँव-पेंच का प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे। भगवान के अंग-प्रत्यंक वज्र से भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़ से चाणूर की रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके उसके शरीर के सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई। अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाज की तरह झपटा और दोनों हाथों के घूँसे बाँधकर उसने भगवान श्रीकृष्ण की छाती पर प्रहार किया। परन्तु उसके प्रहार से भगवान तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलों के गजरे की मार से गजराज। उन्होंने चाणूर की दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अंतरिक्ष में बड़े वेग से कई बार घुमाकर धरती पर दे मारा। परीक्षित! चाणूर के प्राण तो घुमाने के समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त-व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज[1] के समान गिर पड़ा। इसी प्रकार मुष्टिक ने भी पहले बलराम जी को एक घूँसा मारा। इस पर बली बलराम जी ने उसे बड़े ज़ोर से एक तमाचा जड़ दिया। तमाचा लगने से वह काँप उठा और आँधी से उखड़े हुए वृक्ष के समान अत्यन्त व्यथित और अन्त में प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। हे राजन! इसके बाद योद्धाओं में श्रेष्ठ भगवान बलराम जी ने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवान को खेल-खेल में ही बायें हाथ के घूँसे से उपेक्षापूर्वक मार डाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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