प्रेम सुधा सागर पृ. 295

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतालीसवाँ अध्याय

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राजन! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा इन दोनों ने कुवलयापीड को मार डाला, तब उसकी समझ में यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबरा गया। श्रीकृष्ण और बलराम की बाँहें बड़ी लम्बी-लम्बी थीं। पुष्पों के हार, वस्त्र और आभूषण आदि से उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करने के लिये निकले हों। जिनके नेत्र एक बार उन पर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्ति से उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमि में शोभायमान हुए।

परीक्षित! मंचों पर जितने लोग बैठे थे - वे मथुरा के नागरिक और राष्ट्र के जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम जी को देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे। उत्कण्ठा से भर गये। वे नेत्रों के द्वारा उनकी मुखमाधुरी का पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे। मानो वे उन्हें नेत्रों से पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिका से सूँघ रहे हों और भुजाओं से पकड़कर हृदय से सटा रहे हों। उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयता ने मानो दर्शकों को उनकी लीलाओं का स्मरण करा दिया और वे लोग आपस में उनके सम्बन्ध देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे। ‘ये दोनों साक्षात भगवान नारायण के अंश हैं। इस पृथ्वी पर वसुदेव जी के घर में अवतीर्ण हुए हैं ।

अँगुली से दिखाकर ये साँवले-सलोने कुमार देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजी ने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनों तक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजी के घर में ही पलकर इतने बड़े हुए। इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शंखचूड़, केशी और धेनुक आदि का तथा और भी दुष्ट दैत्यों का वध तथा यमलार्जुन का उद्धार किया है। इन्होंने ही गौ और ग्वालों को दावानल की ज्वाला से बचाया था। कालियनाग का दमन और इन्द्र का मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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