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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतालीसवाँ अध्याय
भगवान श्रीकृष्ण ने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेल में ही पृथ्वी पर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँ से उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोध से जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोर से दोनों दाँत धरती पर मारे। जब कुवलयापीड का यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतों की प्रेरणा से वह क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण पर टूट पड़ा। भगवान मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथ से उसकी सूँड़ पकड़कर उसे धरती पर पटक दिया। उसके गिर जाने पर भगवान ने सिंह के समान खेल-ही-खेल में उसे पैरों से दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हीं से हाथी और महावतों का काम तमाम कर दिया । परीक्षित! मरे हुए हाथी को छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण ने हाथ में उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमि में प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधे पर हाथी का दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मद की बूँदों से सुशोभित था और मुखकमल पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों के ही हाथ में कुवलयापीड के बड़े-बड़े दाँत शस्त्र के रूप में सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ रंगभूमि के पधारे, उस समय वे पहलवानों को व्रज कठोर शरीर, साधारण मनुष्यों को नर-रत्न, स्त्रियों को मूर्तिमान कामदेव, गोपों को स्वजन, दुष्ट राजाओं को दण्ड देने वाले शासक, माता-पिता के समान बड़े-बूढ़ों को शिशु, कंस को मृत्यु, अज्ञानियों को विराट, योगियों को परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियों को अपने इष्टदेव जान पड़े।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद्भुत, श्रृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्ति रस का अनुभव किया
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