प्रेम सुधा सागर पृ. 291

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतालीसवाँ अध्याय

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कुवलयापीड़ का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश

श्री शुकदेव जी कहते हैं - काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित करने वाले परीक्षित! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त हो दंगल के अनुरूप नगाड़े की ध्वनि सुनकर रंगभूमि देखने के लिये चल पड़े। भगवान श्रीकृष्ण ने रंगभूमि के दरवाजे पर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावत की प्रेरणा से कुवलयापीड नाम का हाथी खड़ा है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघ के समान गम्भीर वाणी से महावत को ललकारा। कहा- ‘महावत, ओ महावत! हम दोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्ग से हट जा। अरे, सुनता नहीं? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथी के साथ अभी तुझे यमराज के घर पहुँचाता हूँ।'

भगवान श्रीकृष्ण ने महावत को जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोध से तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराज के समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीड को अंकुश की मार से क्रुद्ध करके श्रीकृष्ण की ओर बढ़ाया। कुवलयापीड ने भगवान की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजी से सूँड़ में लपेट लिया; परन्तु भगवान सूँड़ से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरों के बीच में जा छिपे। उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीड को बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान को अपनी सूँड़ से टटोल लिया और पकड़ा भी; परन्तु उन्होंने बलपूर्वक अपने को उससे छुड़ा लिया।

इसके बाद भगवान उस बलवान हाथी की पूँछ पकड़कर खेल-खेल में ही उसे सौ हाथ तक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँप को घसीट लाते हैं। जिस प्रकार घूमते हुए बछड़े के साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ों से खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकड़कर उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायें से घूमकर उनको पकड़ना चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायें की ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते। इसके बाद हाथी के सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिराने के लिये इस प्रकार उसके सामने से भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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