प्रेम सुधा सागर पृ. 290

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
बयालीसवाँ अध्याय

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तीनों लोकों के बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परन्तु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहने वाले भगवान का वरण किया। उन्हीं को सदा के लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान श्रीकृष्ण के अंग-अंग का सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य हैं! व्रज में भगवान की यात्रा के समय गोपियों ने विरहातुर होकर मथुरावासियों के सम्बन्ध में जो-जो बातें कहीं थीं, वे सब यहाँ अक्षरशः सत्य हुईं। सचमुच वे परमानन्द एन मग्न हो गये। जब कंस ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम ने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायता के लिये भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था - इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी।

तब वह बहुत डर गया, उस दुर्बुद्धि को बहुत देर तक नींद न आयी। उसे जाग्रत-अवस्था में तथा स्वप्न में भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए जो उसकी मृत्यु के सूचक थे। जाग्रत-अवस्था में उसने देखा कि जल या दर्पण में शरीर की परछाईं तो पड़ती है, परन्तु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदि की आड़ ने होने पर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदि की ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं। छाया में छेद दिखायी पड़ता है और कानों में अँगुली डालकर सुनने पर भी प्राणों का घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़ में अपने पैरों के चिह्न नहीं दीख पड़ते। कंस ने स्वप्नावस्था में देखा कि वह प्रेतों के गले लग रहा है, गधे पर चढ़कर चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेल से तर है, गले में जपाकुसुम[1][2] की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है। स्वप्न और जाग्रत-अवस्था में उसने इसी प्रकार के और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे नींद न आयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (जवाकुसुम)
  2. अड़हुल(गुड़हल)

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