प्रेम सुधा सागर पृ. 279

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
बयालीसवाँ अध्याय

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उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुष को बायें हाथ से उठाया, उस पर डोरी चढ़ायी और एक क्षण में खींचकर बीचो-बीच से उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान मतवाला हाथी खेल-ही-खेल में ईख को तोड़ डालता है। जब धनुष टूटा तब उसके शब्द से आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया। अब धनुष रक्षक आततायी असुर अपने सहायकों के साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान श्रीकृष्ण को घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेने की इच्छा से चिल्लाने लगे - ‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने ना पावे।'

उनका दुष्ट अभिप्राय जानकार बलराम जी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुष के टुकड़ों को उठाकर उन्हीं से उनका काम तमाम कर दिया। उन्हीं धनुषखण्डों से उन्होंने उन असुरों की सहायता के लिये कंस की भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशाला के प्रधान द्वार से होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्द से मथुरापुरी की शोभा देखते हुए विचरने लगे।

जब नगरवासियों ने दोनों भाइयों के इस अद्भुत पराक्रमी की बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूप को देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी पूरी स्वतंत्रता से मथुरापुरी में विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालों से घिरे हुए नगर से बाहर अपने डेरे पर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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