प्रेम सुधा सागर पृ. 270

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चालीसवाँ अध्याय

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मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो! मैंने अनित्य वस्तुओं को नित्य, अनात्मा को आत्मा और दुःख को सुख समझ लिया। भला, इस उल्टी बुद्धि की भी कोई सीमा है! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वंदों में ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं। जैसे कोई अनजान मनुष्य जल के लिये तालाब पर जाय और उसे उसी से पैदा हुए सिवार आदि घासों से ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्य की किरणों में झूठ-मूठ प्रतीत होने वाले जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही माया से छिपे रहने के कारण आपको छोड़कर विषयों में सुख की आशा से भटक रहा हूँ। मैं अविनाशी अक्षर वस्तु के ज्ञान से रहित हूँ। इसी से मेरे मन में अनेक वस्तुओं की कामना और उनके लिये कर्म करने के संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मन को मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मन को मैं रोक नहीं पाता।

इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलों की छत्रछाया में आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टों के लिये दुर्लभ है। मेरे स्वामी! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ! जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है, तब सत्पुरुषों की उपासना से चित्तवृत्ति आपमें लगती है। प्रभो! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञान-घन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीव के रूप में एवं जीवों के सुख-दुःख आदि के निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी है। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवों के आश्रय [1] हैं; तथा आप बुद्धि और मन के अधिष्ठातृ-देवता हृषिकेश[2] है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संकर्षण
  2. प्रद्युम्न और अनिरुद्ध

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