प्रेम सुधा सागर पृ. 262

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनतालीसवाँ अध्याय

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विधाता! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करने वाले श्यामसुन्दर का मुख कमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल कपोलों पर झलक रहे हैं। मरकत मणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोते की चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरों पर मन्द-मन्द मुस्कान की सुन्दर रेखा, जो सारे शोकों को तत्क्षण भगा देती है।

विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुख कमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रह हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है। हम जानती हैं, इसमें अक्रूर का दोष नहीं है; यह तो साफ़ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्ख की भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दर के एक-एक अंग में तुम्हारी सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये।

अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर को भी नये-नये लोगों से नेह लगाने की चाट पड़ गयी है। देखो तो सही - इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदि को छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हीं के लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखते तक नहीं।

आज की रात का प्रातःकाल मथुरा की स्त्रियों के लिये निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनों की अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त मुखारविन्द का मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरी में प्रवेश करेंगे, अब वे उनका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी। यद्यपि हमारी श्यामसुन्दर धैर्यवान होने के साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनों की आज्ञा में रहते हैं, तथापि मथुरा की युवतियों अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुस्कान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगी से वहीं रम जायँगे। फिर हम गंवार ग्वालिनों के पास ये लौटकर क्यों आने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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