प्रेम सुधा सागर पृ. 253

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
अड़तीसवाँ अध्याय

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इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकों के मन को मोह लेने वाला है। जो नेत्र वाले हैं उनके लिये वह आनन्द और रस की चरम सीमा है। इसी से स्वयं लक्ष्मी जी भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी हैं, उन्हें पाने के लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकाल से ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं।

जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिये तुरंत रथ से कूद पडूँगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं! बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कार के लिये मन-ही-मन अपने हृदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लौट जाऊँगा उन पर।

उन दोनों के साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबाल के चरणों की भी वन्दना करूँगा। मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलों में गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे? उनके वे करकमल उन लोगों को सदा के लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कामरूपी साँप के भय से अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरण में आ जाते हैं। इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व - इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान के उन्हीं करकमलों ने, जिनमें से दिव्य कमल की-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्श से रासलीला के समय व्रज युवतियों की सारी थकान मिटा दी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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