प्रेम सुधा सागर पृ. 23

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चौथा अध्याय

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श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! कन्या को अपनी गोद में छिपा कर देवकी जी ने अत्यन्त दीनता के साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था। उसने देवकी जी को झिड़ककर उनके हाथ से वह कन्या छीन ली। अपनी उस नन्हीं-सी नवजात भान्जी के पैर पकड़कर कंस ने उसे बड़े ज़ोर से एक चट्टान पर दे मारा। स्वार्थ ने उसके हृदय से सौहार्द को समूल उखाड़ फेंका था। परन्तु श्रीकृष्ण की वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथ से छूटकर तुरंत आकाश में चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथों में आयुध लिये हुए दीख पड़ी। वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणों से विभूषित थी। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा - ये आठ आयुध थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंट की सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति करने लगे।

उस समय देवी ने कंस से कहा- ‘रे मूर्ख! मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्म का शत्रु तुझे मारने के लिए किसी स्थान पर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकों की हत्या न किया कर। कंस से इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वी के अनेक स्थानों में विभिन्न नामों से प्रसिध्द हुईं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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