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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय
ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चामल रही हो। नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेग से; कभी चाक की तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकार से उन्हें चमकतीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्करातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो। झुकने, बैठने, उठने और चलने की फुर्ती से उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानों के कुण्डल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे। नाचने के परिश्रम से उनके मुँह पर पसीने की बूँदे झलकने लगी थीं। केशों की चोटियाँ कुछ ढीली पद गयी थीं। नीवीं की गाँठे खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलाल की पेम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रहीं थीं। परीक्षित! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी। गोपियों का जीवन भगवान की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्ण से सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वर से मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्ण का संस्पर्श पा-पाकर और भी आनन्दमग्न हो रही थीं। उनके राग-रागिनियों से पूर्ण गान से यह सारा जगत अब भी गूँज रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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