प्रेम सुधा सागर पृ. 216

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
बत्तीसवाँ अध्याय

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भगवान प्रकट होकर गोपियाँ को सान्तवना देना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित! भगवान की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार भाँति-भाँति से गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं। ठीक उसी समय उनके बीचो बीच भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुख कमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिला हुआ था। गले में वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मन को भी मथने वाला था।

कोटि-कोटि कामों से भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनन्द से खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुईं, मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो, शरीर के एक-एक अंग में नवीन चेतना - नूतन स्फूर्ति आ गयी हो। एक गोपी ने बड़े प्रेम और आनन्द से श्रीकृष्ण के करकमल को अपने दोनों हाथों में ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी।

दूसरी गोपी ने उनके चन्दन चर्चित भुजदण्ड को अपने कंधे पर रख लिय। तीसरी सुन्दरी ने भगवान का चबाया हुआ पान अपने हाथों में ले लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदय में भगवान के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल पर रख लिया। पाँचवी गोपी प्रणय कोप से विह्वल होकर, भौंहें चढ़ाकर, दाँतों से होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणों से बींधती हुई उनकी और ताकने लगी। छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल का मकरन्द-रस पान करने लगी। परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरी का निरन्तर पान करते रहने पर भी तृप्त नहीं होती थी। सातवीं गोपी नेत्रों के मार्ग से भगवान को अपने हृदय में ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करने से उसका शरीर पुलकित हो गया, रोम-रोम खिल उठा और वह सिद्ध योगियों के समान परमानन्द में मग्न हो गयी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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