प्रेम सुधा सागर पृ. 211

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तीसवाँ अध्याय

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सखियों! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्ण के चरणचिह्न अधिक गहरे- बालू में धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तु को उठाकर हेल हैं, उसी के बोझ से उनके पैर जमीन में धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामी ने अपनी प्रियतमा को अवश्य कंधे पर चढ़ाया होगा। देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी वल्लभ ने फूल चुनने के लिये अपनी प्रेयसी को नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी के लिये फूल चुने हैं।

उचक-उचक कर फूल तोड़ने के कारण यहाँ उनके पंजे तो धरती में गड़े हुए हैं और एड़ी का पता ही नहीं है। परम प्रेमी श्रीकृष्ण ने कामी पुरुष के समान यहाँ अपनी प्रेयसी के केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलों को प्रेयसी की चोटी में गूँथने के लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की कल्पना कैसे हो सकती है? फिर भी उन्होंने कामियों की दीनता-स्त्रीपरवशता और स्त्रियों की कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपी के साथ एकान्त में क्रीडा की थी - एक खेल रचा था।

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर - अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरों को भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिह्न दिखलाती हुई वन-वन में भटक रही थीं। इधर भगवान श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं। वह गोपी वन में जाकर अपने प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्ण से कहने लगी - ‘प्यारे! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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