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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उनतीसवाँ अध्याय
इसलिये भगवान से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो - काम का हो, क्रोध का हो या भय का हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्द का हो। चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं और उस जीव को भगवान की ही प्राप्ति होती है। परीक्षित! तुम्हारे-जैसी परम भागवत भगवान का रहस्य जानने वाले भक्तों को श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये। योगेश्वरों के भी ईश्वर अजन्मा भगवान के लिये भी यह कोई आश्चर्य की बात है? अरे! उनके संकल्पमात्र से - भौंहों के इशारे से सारे जगत का परम कल्याण हो सकता है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोद भरी वाक् चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहा - क्यों न हो - भूत, भविष्य और वर्तमान काल के जितने वक्ता हैं, उसमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - महाभाग्यवती गोपियों! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करने के लिये मैं कौन-सा काम करूँ? व्रज में तो सब कुशल-मंगल है न? कहो, इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? सुन्दरी गोपियों! रात का समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैं। अतः तुम सब तुरन्त व्रज में लौट जाओ। रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिये। तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ रहे होंगे। उन्हें भय में न डालो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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