प्रेम सुधा सागर पृ. 173

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोविंश अध्याय

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ऊँचे वंश में जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है। निश्चय ही, भगवान की माया बड़े-बड़े योगियों को भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्यों के गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ के विषय में बिलकुल भूले हुए हैं। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही - यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती।

इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्ध में ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही। फिर भी समस्त योगेश्वरों के ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुल में निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसंधान किया है, पवित्रता का निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है।

सच्ची बात यह है कि हम लोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभु ने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी। भगवान स्वयं पूर्ण काम हैं और कैवल्यमोक्ष पर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करने वाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवों से प्रयोजन ही क्या हो सकता था?

अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्य से माँगने का बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगने की भला क्या आवश्यकता थी? स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओं को छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषों का परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसी से भोजन की याचना करें, यह लोगों को मोहित करने के लिये नहीं तो और क्या है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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