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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
त्रयोविंश अध्याय
ब्राह्मण पत्नियों ने जाकर देखा कि यमुना के तटपर नये-नये कोंपलों से शोभायमान अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं। उनके साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गले में वनमाला लटक रही है। मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है। अंग-अंग में रंगीन धातुओं से चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलों के गुच्छे शरीर में लगाकर नट का-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथ से कमल का फूल नचा रहे हैं। कानों में कमल कुण्डल हैं, कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुस्कान की रेखा से प्रफुल्लित हो रहा है। परीक्षित! अब तक अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुण और लीलाएँ अपने कानों से सुन-सुनकर उन्होंने अपने मन को उन्हीं के प्रेम में रँग में डाला था, उसी में सराबोर कर दिया था। अब नेत्रों के मार्ग से उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देर तक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदय की जलन शान्त की - ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत और स्वप्न-अवस्थाओं की वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भाव से जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्था में उसके अभिमानी प्राज्ञ को पाकर उसी में लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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